आचार्य श्रीराम शर्मा >> सत्य को पूर्वाग्रहों में न बाँधें सत्य को पूर्वाग्रहों में न बाँधेंश्रीराम शर्मा आचार्य
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सत्य के प्रति निष्ठावान् रहें....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सूरज इतना छोटा नहीं है कि उसे एक छोटे कमरे में बंद किया जा सके। समग्र
सत्य इतना तुच्छ नहीं है कि किन्हीं मनुष्यों का नगण्य- सा मस्तिष्क उसे
पूरी तरह अपने में समाविष्ट कर सके। समुद्र बहुत बड़ा है, उसे चुल्लू में
लेकर हममें से कोई भी उदरस्थ नहीं कर सकता। सत्य को जितना हमने जाना है,
हमारी समझ और दृष्टि के अनुसार वह सत्य हो सकता है-उस पर श्रद्धा रखने का
हर एक को अधिकार है किंतु इससे आगे बढ़कर यदि ऐसा सोचा जाने लगा कि अन्य
लोग जो सोचते हैं, वह सब कुछ मात्र असत्य ही है, तो यह पूर्वाग्रहपूर्ण
मान्यता सत्य की अवमानना ही होगी।
धरती सत्य पर टिकी है
नवागत सैनिकों को दिन भर कठोरतापूर्वक अभ्यास कराने वाला प्रशिक्षक
सायंकाल घर लौटता है तो उसे अपनी पत्नी, पुत्री और बेटों से मधुर मुस्कान,
सौम्य संभाषण एवं मृदुल व्यवहार की अपेक्षा होती है। मधुरता की, सौम्यता
की आकांक्षा नैसर्गिक होती है। पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध करने वाला बधिक
भी दयापेक्षी होता है। दया और करुणा हमारे अंतःकरण की सनातन आकांक्षाएँ
हैं। बेईमानी और दलाली करने वाले वणिक भी अपने लिए ईमानदारी और निष्कपट
व्यवहार की अपेक्षा करते हैं। नैतिकता हमारे जीवन की प्रधान आवश्यकता है,
इसी प्रकार संसार का कोई भी व्यक्ति अपने प्रति यह नहीं चाहता कि कोई उससे
झूँठ बोले, भले ही उसने जीवन में एक बार भी सत्य नहीं बोला हो। उसकी इस
आवश्यकता की पूर्ति करने वाला कोई न कोई तो होता ही है। निरंतर असत्य के
संसर्ग में रहकर संतुलित मस्तिष्क तथा जीवित रह पाना कठिन है, इसलिए संसार
का हर जीवित प्राणी मैत्री संबंध स्थापित करता है। परिवार और दूसरी
सार्वजनिक संस्थाओं का निर्माण करता है, जहाँ वह विश्वासपूर्वक एक -दूसरे
से व्यस्त होकर अपने आपको बोझिल होने से बचा लेता है।
किसी न किसी अंश में सत्य में परिपूर्ण निष्ठा जमी होने पर ही यह पृथ्वी, यह संसार स्थिर है-ऐसा शास्त्रकार का कथन है। अपनी इस उक्ति में उसने एक महत्त्वपूर्ण जीवन दर्शन सत्य की आवश्यकता ही प्रतिपादित कर दी है, सत्य हर व्यक्ति के जीवन का मूल मंत्र होना चाहिए। हरिश्चंद्र, सत्यकाम, जाबालि और गाँधी जैसी पूर्ण सत्यनिष्ठा न हो तो भी उसे सत्य के परिपालन में इतना तो दृढ़ होना ही चाहिए कि अपने द्वारा किसी अन्य प्राणी का किंचित मात्र अहित न हो।
मनीषी का कथन है-
किसी न किसी अंश में सत्य में परिपूर्ण निष्ठा जमी होने पर ही यह पृथ्वी, यह संसार स्थिर है-ऐसा शास्त्रकार का कथन है। अपनी इस उक्ति में उसने एक महत्त्वपूर्ण जीवन दर्शन सत्य की आवश्यकता ही प्रतिपादित कर दी है, सत्य हर व्यक्ति के जीवन का मूल मंत्र होना चाहिए। हरिश्चंद्र, सत्यकाम, जाबालि और गाँधी जैसी पूर्ण सत्यनिष्ठा न हो तो भी उसे सत्य के परिपालन में इतना तो दृढ़ होना ही चाहिए कि अपने द्वारा किसी अन्य प्राणी का किंचित मात्र अहित न हो।
मनीषी का कथन है-
साँच बराबर तप नहीं, झूँठ बराबर पाप।
जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप।।
जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप।।
अर्थात्- सत्य सभी तपों का तप, झूठ से बढ़कर दूसरा पाप नहीं, जिसके हृदय
में सत्य है उसके हृदय में परमात्मा विराजता है।
शून्य आकाश में, अनंत अंतरिक्ष के अनादि नक्षत्रों का प्रकाश एक बिंदु पर टकराता है। बाहर खड़ा व्यक्ति प्रकाश कणों के द्वंद्व को देखकर यह पता नहीं लगा सकता कि कौन प्रकाश किस नक्षत्र से आ रहा है, किंतु यदि वह इन प्रकाश कणों की बौछार के मध्य उस बिंदु को प्राप्त कर ले, जहां हर आगंतुक कण टकराता हो तो उस मूल बिंदु से चारों ओर देखते रह सकना तथा प्रकाश के द्वारा ग्रह नक्षत्रों के अंतरंग का पता लगाना भी संभव हो जाता है। सत्य भी एक ऐसा ही दिव्य प्रकाश और मूल बिंदु है, जिसे पकड़ने और धारण करने वाला व्यक्ति संसार की प्रत्येक वस्तुस्थिति का परिपूर्ण एवं आशंकारहित ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
सत्य जीवन की एक ऐसी अवस्था है जहाँ स्थित होकर अपने आस-पास के संपूर्ण वातावरण का सम्यक और यथार्थ अध्ययन किया जा सकता है क्योंकि दुनियाँ भर की अहंताएँ उससे टकराती हैं। कीचड़ में फँसा हुआ बीज अपने आपको कीचड़ से अधिक नहीं सोच सकता, पर जब वही अंकुरित और पल्लवित होकर अपने आपको अपनी चेतना के दायरे में समेट लेता है तो न केवल उस कीचड़ के प्रभाव से बच पाता है वरन् उस कीचड़ में ही फँसी बहुमूल्य विभूतियों का अपने लिए अर्जन करने लगता है और उसकी वही अंतः उपार्जित उपलब्धियाँ ही सौरभ सुवास के रूप में फूट पड़ती हैं। कीचड़ की जहाँ निंदा हो रही थी, वहाँ उसमें से जन्मे कमल की प्रशंसा होने लगती है।
संसार माया, मोह, काम, क्रोध, मद और मत्सर का कीचड़ जैसा है, जहाँ पर हर व्यक्ति अपना स्वार्थ, अपनी अहंता की पूर्ति चाहता है। ऐसी परिस्थितियों में जीवन और विश्व के यथार्थ को समझ सकना कठिन हो जाता है, पर यदि कोई सत्य का आश्रय ले लेता है तो कमल के समान वह अपनी आत्मा के मूल बिंदु पर स्थित होकर विश्व के यथार्थ को देख लेता है। भली प्रकार समझा हुआ यह सत्य ही स्वर्ग और बंधन मुक्ति का आधार बनता है।
सत्य केवल संभाषण तक सीमित नहीं, उसका क्षेत्र बड़ा व्यापक और विशाल है। बोलें सत्य, साथ ही दूसरों को भी झूँठ बोलने न दें। व्यवहार में सत्यता हो, पर यह भी ध्यान रहे कि उस सत्य में अप्रियता न हो, जहाँ दूसरों के प्रति सत्य की अभिव्यक्ति में साहस और दृढ़ता हो, वहाँ अपने सत्य को प्रस्तुत करते समय भी चित्त डाँवाडोल न हो। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बरती गई ईमानदारी ही, सार्वभौमिक सत्य ही हमें विश्व के यथार्थ की अनुभूति करा सकता है।
उदाहरणार्थ गाँधीजी ने सत्य को अपना जीवन मंत्र बनाया था। उन्होंने कुछ प्रतिज्ञाएँ की थीं-अहिंसा का व्रत पालन करूँगा। निर्धन देश की सेवा करते समय निर्धन बनकर रहूँगा। दोनों प्रतिज्ञाएँ समय -समय पर परीक्षा लेती थीं। एक बार गाँधीजी खेड़ा से एक गांव जा रहे थे। यात्रा बैलगाड़ी में हो रही थी, जिस गाड़ी में गाँधीजी बैठे थे उसे एक किसान हाँक रहा था। किसान ने ठंडे में लोहे की कील चुभा रखी थी, वह बार-बार कील बैलों की पीठ पर चुभा देता था। जिससे बैल थोड़ा तेज चलने लगते थे। गांधीजी की दृष्टि एकाएक उधर पड़ गई। बैलों की पीठ पर रक्त, वह भी उनके निमित्त उनकी प्रतिज्ञा की सत्यता की कसौटी थी। गाँधीजी बैलगाड़ी से उतर पड़े और फिर खेड़ा तक पैदल ही गए।
उन्हें 103.5 डिग्री बुखार था, इलाज के लिए साराभाई की कोठी पर ले जाया गया। बेहोशी टूटी, तो उन्होंने देखा, मैं सत्याग्रह आश्रम में नहीं हूँ। उन्होंने इतनी बीमारी में भी जीवन की परवाह न करके साराभाई की कोठी छोड़ दी और अपने आश्रम में आ गए। वाणी और व्यवहार के इस सत्य ने गाँधीजी को विश्व प्रतिष्ठा का अधिकारी बनाया। आज सारी दुनियाँ गाँधीजी नहीं उनकी इस सत्यनिष्ठा को नमन करती है। सत्यवादी व्यक्ति भीतर और बाहर एक समान होता है, इसलिए उसकी शक्ति की थाह पा सकना किसी के लिए भी संभव नहीं होता। जब तक इस सत्य का एक भी कण जिंदा है, यह पृथ्वी तब तक स्थिर है। मनुष्य जाति ने यदि सत्य का पल्ला छोड़ दिया तो वह अपने आप ही सत्यानाश की विभीषिका में जलकर अपना अंत कर लेगी। हमें दंभ और कपट का नहीं सत्य का आचारण करना चाहिए, इसी में संसार की शोभा है। हम स्वयं की भी वास्तविक शक्ति सत्य ही है।
शून्य आकाश में, अनंत अंतरिक्ष के अनादि नक्षत्रों का प्रकाश एक बिंदु पर टकराता है। बाहर खड़ा व्यक्ति प्रकाश कणों के द्वंद्व को देखकर यह पता नहीं लगा सकता कि कौन प्रकाश किस नक्षत्र से आ रहा है, किंतु यदि वह इन प्रकाश कणों की बौछार के मध्य उस बिंदु को प्राप्त कर ले, जहां हर आगंतुक कण टकराता हो तो उस मूल बिंदु से चारों ओर देखते रह सकना तथा प्रकाश के द्वारा ग्रह नक्षत्रों के अंतरंग का पता लगाना भी संभव हो जाता है। सत्य भी एक ऐसा ही दिव्य प्रकाश और मूल बिंदु है, जिसे पकड़ने और धारण करने वाला व्यक्ति संसार की प्रत्येक वस्तुस्थिति का परिपूर्ण एवं आशंकारहित ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
सत्य जीवन की एक ऐसी अवस्था है जहाँ स्थित होकर अपने आस-पास के संपूर्ण वातावरण का सम्यक और यथार्थ अध्ययन किया जा सकता है क्योंकि दुनियाँ भर की अहंताएँ उससे टकराती हैं। कीचड़ में फँसा हुआ बीज अपने आपको कीचड़ से अधिक नहीं सोच सकता, पर जब वही अंकुरित और पल्लवित होकर अपने आपको अपनी चेतना के दायरे में समेट लेता है तो न केवल उस कीचड़ के प्रभाव से बच पाता है वरन् उस कीचड़ में ही फँसी बहुमूल्य विभूतियों का अपने लिए अर्जन करने लगता है और उसकी वही अंतः उपार्जित उपलब्धियाँ ही सौरभ सुवास के रूप में फूट पड़ती हैं। कीचड़ की जहाँ निंदा हो रही थी, वहाँ उसमें से जन्मे कमल की प्रशंसा होने लगती है।
संसार माया, मोह, काम, क्रोध, मद और मत्सर का कीचड़ जैसा है, जहाँ पर हर व्यक्ति अपना स्वार्थ, अपनी अहंता की पूर्ति चाहता है। ऐसी परिस्थितियों में जीवन और विश्व के यथार्थ को समझ सकना कठिन हो जाता है, पर यदि कोई सत्य का आश्रय ले लेता है तो कमल के समान वह अपनी आत्मा के मूल बिंदु पर स्थित होकर विश्व के यथार्थ को देख लेता है। भली प्रकार समझा हुआ यह सत्य ही स्वर्ग और बंधन मुक्ति का आधार बनता है।
सत्य केवल संभाषण तक सीमित नहीं, उसका क्षेत्र बड़ा व्यापक और विशाल है। बोलें सत्य, साथ ही दूसरों को भी झूँठ बोलने न दें। व्यवहार में सत्यता हो, पर यह भी ध्यान रहे कि उस सत्य में अप्रियता न हो, जहाँ दूसरों के प्रति सत्य की अभिव्यक्ति में साहस और दृढ़ता हो, वहाँ अपने सत्य को प्रस्तुत करते समय भी चित्त डाँवाडोल न हो। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बरती गई ईमानदारी ही, सार्वभौमिक सत्य ही हमें विश्व के यथार्थ की अनुभूति करा सकता है।
उदाहरणार्थ गाँधीजी ने सत्य को अपना जीवन मंत्र बनाया था। उन्होंने कुछ प्रतिज्ञाएँ की थीं-अहिंसा का व्रत पालन करूँगा। निर्धन देश की सेवा करते समय निर्धन बनकर रहूँगा। दोनों प्रतिज्ञाएँ समय -समय पर परीक्षा लेती थीं। एक बार गाँधीजी खेड़ा से एक गांव जा रहे थे। यात्रा बैलगाड़ी में हो रही थी, जिस गाड़ी में गाँधीजी बैठे थे उसे एक किसान हाँक रहा था। किसान ने ठंडे में लोहे की कील चुभा रखी थी, वह बार-बार कील बैलों की पीठ पर चुभा देता था। जिससे बैल थोड़ा तेज चलने लगते थे। गांधीजी की दृष्टि एकाएक उधर पड़ गई। बैलों की पीठ पर रक्त, वह भी उनके निमित्त उनकी प्रतिज्ञा की सत्यता की कसौटी थी। गाँधीजी बैलगाड़ी से उतर पड़े और फिर खेड़ा तक पैदल ही गए।
उन्हें 103.5 डिग्री बुखार था, इलाज के लिए साराभाई की कोठी पर ले जाया गया। बेहोशी टूटी, तो उन्होंने देखा, मैं सत्याग्रह आश्रम में नहीं हूँ। उन्होंने इतनी बीमारी में भी जीवन की परवाह न करके साराभाई की कोठी छोड़ दी और अपने आश्रम में आ गए। वाणी और व्यवहार के इस सत्य ने गाँधीजी को विश्व प्रतिष्ठा का अधिकारी बनाया। आज सारी दुनियाँ गाँधीजी नहीं उनकी इस सत्यनिष्ठा को नमन करती है। सत्यवादी व्यक्ति भीतर और बाहर एक समान होता है, इसलिए उसकी शक्ति की थाह पा सकना किसी के लिए भी संभव नहीं होता। जब तक इस सत्य का एक भी कण जिंदा है, यह पृथ्वी तब तक स्थिर है। मनुष्य जाति ने यदि सत्य का पल्ला छोड़ दिया तो वह अपने आप ही सत्यानाश की विभीषिका में जलकर अपना अंत कर लेगी। हमें दंभ और कपट का नहीं सत्य का आचारण करना चाहिए, इसी में संसार की शोभा है। हम स्वयं की भी वास्तविक शक्ति सत्य ही है।
सत्य में हजार हाथियों का बल
सत्य की महिमा अपार है। शास्त्रों और ऋषियों ने उसे धर्म और अध्यात्म का
आधार माना है और कहा है-‘सत्यमेव जयते नानृतम् अर्थात् सत्य ही
जीतता है, असत्य नहीं। चिरस्थायी सफलताओं का आधार सत्य पर रखा गया है।
असत्य के सहारे कोई व्यक्ति थोड़े समय तक लाभ प्राप्त कर सकता है, पर जब
वस्तुस्थिति प्रकट हो जाती है, तब उस लाभ को समाप्त होते हुए भी देर नहीं
लगती। सत्य का वट वृक्ष धीरे -धीरे भले ही बढ़ता और फलता-फूलता हो, पर जब
वह परिपुष्ट हो जाता है। तब उसका आयुष्य हजारों वर्षों का बन जाता है। वट
वृक्ष की जड़ें नीचे जमीन में भी चलती हैं और ऊपर की शाखाओं में से भी
निकलकर नीचे आती है और जमीन में प्रवेश कर वृक्ष की पुष्टि और आयु बढ़ने
में सहायक होती हैं। दूसरे छोटे पेड़- पौधे प्रकृति के प्रवाह को देर तक
नहीं सह पाते और शीघ्र ही बूढ़े होकर अपना अस्तित्व खो बैठते हैं। सत्य वट
वृक्ष के समान है, अन्य आधारों पर प्राप्त की गई सफलताएँ बरसती घास पात की
तरह हैं, तो सत्य के सूर्य की प्रखरता सहन कर सकने में समर्थ नहीं होती
ग्रीष्म ऋतु में उनका अस्तित्व अक्षुण्य नहीं रह सकता।
उक्ति है कि- ‘‘सत्य में हजार हाथियों के बराबर बल होता है।’’ शारीरिक दृष्टि से यह बात सच भले ही न हो, पर आत्मिक दृष्टि से पूर्णतया सही है। सत्यनिष्ठ व्यक्ति में इतना आत्मबल होता है कि वह अकेला हजार मिथ्याचारियों से भिड़ सकता है और अंततः वही विजय प्राप्त करता है। जहाँ सत्य है, वहाँ अन्य गुण अपने आप उत्पन्न हो जाते हैं। जहाँ असत्य है वहाँ दुर्गुणो का भंडार धीरे -धीरे भरता और बढ़ता चला जाता है। इसलिए आत्मबल बढ़ाने के लिए, ईश्वर प्राप्त करने के लिए हमारे शास्त्रों में सत्यनिष्ठा को महानतम उपासना बताया है। भारतीय धर्म में सत्य को परमात्मा का स्वरूप माना है। सत्य को नारायण कहा गया है, सत्य-नारायण भगवान् की ‘जय बोलने, कथा सुनने, व्रत रखने का अपने यहाँ चिर-प्रचलन है। यह सत्य-नारायण कोई व्यक्ति या देवता नहीं है वरन् सच्चाई को अंतःकरण मस्तिष्क और व्यवहार में प्रतिष्ठापित करने की प्रगाढ़ आस्था ही है। जो सत्यनिष्ठ है, वही सत्य-नारायण भगवान का समीपवर्ती साधक है। स्वर्ग और मुक्ति-सिद्धि एवं समृद्धि तो उसके करतलगत ही रहती है।
उक्ति है कि- ‘‘सत्य में हजार हाथियों के बराबर बल होता है।’’ शारीरिक दृष्टि से यह बात सच भले ही न हो, पर आत्मिक दृष्टि से पूर्णतया सही है। सत्यनिष्ठ व्यक्ति में इतना आत्मबल होता है कि वह अकेला हजार मिथ्याचारियों से भिड़ सकता है और अंततः वही विजय प्राप्त करता है। जहाँ सत्य है, वहाँ अन्य गुण अपने आप उत्पन्न हो जाते हैं। जहाँ असत्य है वहाँ दुर्गुणो का भंडार धीरे -धीरे भरता और बढ़ता चला जाता है। इसलिए आत्मबल बढ़ाने के लिए, ईश्वर प्राप्त करने के लिए हमारे शास्त्रों में सत्यनिष्ठा को महानतम उपासना बताया है। भारतीय धर्म में सत्य को परमात्मा का स्वरूप माना है। सत्य को नारायण कहा गया है, सत्य-नारायण भगवान् की ‘जय बोलने, कथा सुनने, व्रत रखने का अपने यहाँ चिर-प्रचलन है। यह सत्य-नारायण कोई व्यक्ति या देवता नहीं है वरन् सच्चाई को अंतःकरण मस्तिष्क और व्यवहार में प्रतिष्ठापित करने की प्रगाढ़ आस्था ही है। जो सत्यनिष्ठ है, वही सत्य-नारायण भगवान का समीपवर्ती साधक है। स्वर्ग और मुक्ति-सिद्धि एवं समृद्धि तो उसके करतलगत ही रहती है।
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